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सफल प्रबंधन के गुर

सुरेश कांत

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2764
आईएसबीएन :81-8361-017-x

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इसमें एक व्यवसाय को सफल बनाने के गुणों का वर्णन किया गया है.....

Saphal Prabandhan Ke Gur

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


प्रबंधन आत्मा-विकास और सतत् प्रक्रिया है। अपने को व्यवस्थित-प्रबंधित किए बिना आदमी दूसरों को व्यवस्थित-प्रबंधित करने में सफल नहीं हो सकता, चाहे वे दूसरे लोग घर के सदस्य हों या दफ्तर अथवा कारोबार के। इस प्रकार आत्म-विकास ही घर-दफ्तर, दोनों की उन्नति का मूल है। इस लिहाज से देखें, तो प्रबंधन का ताल्लुक कम्पनी-जगत के लोगों से ही नहीं, मनुष्य मात्र से है। वह इंसान को बेहतर इंसान बनाने की कला है, क्योंकि बेहतर इंसान ही बेहतर कर्मचारी, अधिकारी,  प्रबंधक या कारोबारी हो सकता है।

‘सफल प्रबंधन के गुर’ में कार्य-संस्कृति यानी ‘वर्क कल्चर’, ‘बिक्री, विपणन और नेगोशिएशन तथा ‘नेतृत्व-कौशल’ शीर्षक उपखण्डों में ईमानदारी, दफ्तरी राजनीति, सहकर्मियों के पारस्परिक सम्बन्धों, व्यक्तिगत कार्य कुशलता, कार्य के प्रति प्रतिबद्धता ग्राहक के सम्बन्ध, मार्केटिंग और व्यावसायिक साख आदि बिन्दुओं पर विचार करते हुए नेतृत्व-कौशल के विभिन्न आयामों पर प्रकाश डाला गया है।
आत्मविकास और प्रबंधन की एक व्यावहारिक निर्देशिका।

भूमिका : क्या कैसे और किसके लिए

आज से लगभग चार साल पहले बिजनेस-डेली ‘अमर उजाला कारोबार’ के प्रकाशन के साथ हिंदी की व्यावसायिक पत्रकारिता के क्षेत्र में एक क्रांति हुई थी। उसके खूबसूरत कलेवर, पेशेवराना प्रस्तुति और उच्चस्तरीय सामग्री ने मुझे भी उसके साथ बतौर लेखक जुड़ने के लिए प्रेरित किया। और तब से उसमें हर मंगलवार को प्रकाशित होनेवाले अपने कॉलम में मैं प्रबंधन के विभिन्न पहलुओं पर नियमित रूप से लिखता रहा।

एक विषय के रूप में प्रबंधन की ओर मेरा झुकाव रिज़र्व बैंक में अपनी कानपुर-पोस्टिंग के दौरान अपने कार्यालय-अध्यक्ष श्री कृष्ण मुदगिल की प्रेरणा से हुआ। बाद में कानपुर से दिल्ली आने पर दिल्ली-कार्यालय के अध्यक्ष श्री सैयद मुहम्मद तक़ी हुसैनी ने मुझे नया कुछ करने की प्रेरणा दी, तो मेरा ध्यान प्रबंधन पर लिखने की तरफ ही गया। हिंदी में इस तरह के लेखन का नितांत अभाव था और ‘हिंदीवाला’ होने के नाते मैं इस अभाव की पूर्ति करना अपना कर्तव्य भी समझता था। लिहाजा मुदगिल जी और हुसैनी साहब जैसे हितैषियों की प्रेरणा, अपने कर्तव्य-बोध और ‘कारोबार’ के प्रकाशन की शुरुआत—इन तीनों ने मुझे इस विषय पर लिखने की राह पर डाल दिया।

प्रबंधन मेरी नजर में आत्म-विकास की सतत प्रक्रिया है। अपने को व्यवस्थित-प्रबंधित किए बिना आदमी दूसरों को व्यवस्थित-प्रबंधित करने में सफल नहीं हो सकता, चाहे वे दूसरे लोग घर के सदस्य हों या दफ्तर अथवा कारोबार के। इस प्रकार आत्म-विकास ही घर-दफ्तर, दोनों की उन्नति का मूल है। इस लिहाज से देखें, तो प्रबंधन का ताल्लुक कंपनी-जगत के लोगों से ही नहीं, मनुष्य मात्र से है। वह इंसान को बेहतर इंसान बनाने की कला है, क्योंकि बेहरतर इंसान ही बेहरतर कर्मचारी, अधिकारी, प्रबंधक या कारोबारी हो सकता है।

प्रबंधन पर लिखते समय मेरे ध्यान में यह पूरा लक्ष्य-समूह रहता है और मैं अखबार से मिलने वाले फीडबैक तथा पाठकों से सीधे प्राप्त होने वाली प्रतिक्रियाओं के आधार पर कह सकता हूँ कि मैं प्रबंधन को हिंदीभाषा छात्रों, अध्यापकों, शोधार्थियों, कारोबारियों और कर्मचारियों-अधिकारियों-प्रबंधकों के बीच ही नहीं, इस विषय से सीधा संबंध न रखनेवाले आम आदमी के बीच भी लोकप्रिय बनाने में कामयाब रहा हूँ।

इस व्यापक लक्ष्य-समूह को मद्देनजर रखते हुए और साथ ही प्रबंधन की विभिन्न अवधारणाओं को समझने में हो सकनेवाली गफलत की आशंका को दूर करने के उद्देश्य से भी, मैंने हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी के शब्दों का भी बहुतायत से प्रयोग किया है और इसके लिए ‘यानी’ वाली शैली अपनाई है, जैसे अंतःक्रिया यानी इंटरएक्शन प्रत्यायोजन यानी डेलीगेशन, कल्पना यानी विजन आदि। जहाँ हिंदी के शब्द अप्रचलित और क्लिष्ट लगे। वहाँ मैंने केवल अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करने से भी परहेज नहीं किया। शुद्धतावादी इससे कुछ परेशान हो सकते हैं, पर हिंदी को जीवंत और जवाँ बनाए रखने के लिए यह जरूरी था। मैं शुद्धतावादियों का खयाल रखता या अपने पाठकों और अपनी हिंदी का ? शुद्धतावादियों की जानकारी के लिए बता दूँ कि खुद ‘हिंदी’ शब्द विदेशी है। और भी ऐसे अनेक शब्द, जिनके बारे में हम सोच भी नहीं सकते कि वे हिंदी के नहीं होंगे, हिंदी के नहीं हैं। काग़ज, कलम, पेन, कमीज, कुर्ता, पाजामा, पैंट, चाकू, चाय, कुर्सी, मेज, बस, कार, रेल, रिक्शा, चेक, ड्राप्ट, कामरेड, दफ्तर, फाइल, बैंक आदि में से कोई अंग्रेजी का शब्द है, तो कोई अरबी, फारसी, तुर्की, रूसी, जापानी आदि में से किसी का। और ऐसे शब्दों की एक लम्बी सूची है। असल में यह हिंदी की ताकत है, कमजोरी नहीं।

लेखों में अनेक देशी-विदेशी प्रबंध-गुरुओं, विद्वानों, शास्त्रियों, व्यावसायिक सलाहकारों, कार्यपालिका आदि के उद्धरण मिलेंगे; यह ज्ञान बघारने या बोझ से मारने के लिए नहीं, बात को स्पष्ट करने और प्रमाणिक बनाने के लिए है।
अशोक महेश्वरी जी ने जब मुझे पत्र लिखकर सूचित किया कि वे कारोबार में मेरे लेख नियमित रूप से पढ़ रहे हैं और उनसे स्वयं उन्हें भी लाभ पहुँचा है, तो मेरे उत्साह की कोई सीमा न रही। अब वे उन्हें पुस्तक-रूप में छापने का दायित्व भी उठा रहे हैं। हरीश आनंद जी ने भी अनेक महत्त्वपूर्ण सुझाव देकर मेरी सहायता की है। उनके द्वारा सुनाया गया किस्सा मुझे अब तक याद है और वह यह कि एक व्यक्ति ने अपने हाथों में पकड़े एक पक्षी को पीठ पीछे ले जाते हुए अपने मित्र से पूछा—बताओ, यह पक्षी मरा हुआ है या जिंदा ?

मित्र ने झट से कहा—ऑप्शन तुम्हारे पास है, क्योंकि अगर मैं कहूँगा कि जिंदा है, तो तुम पीछे ही इसकी गर्दन मरोड़कर मुझे दिखा सकते हो; और मैं कहूं कि मरा हुआ है, तो जिंदा तो तुम इसे दिखा ही दोगे। इसी की तर्ज पर मैं यह भी कहना चाहता हूं कि प्रबंधन एक ऐसी विद्या है, जिसके द्वारा हम अपने व्यक्तित्व, घर-परिवार, दफ्तर और कारोबार—सबकी काया पलट सकते हैं और उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं। हम ऐसा करें या नहीं, यह विकल्प हमारे अपने हाथ में है।
अंत में, जिस-जिससे भी मुझे अपने इस प्रयास में सहायता मिली, उन सबके प्रति मैं शायर के इन शब्दों में आभार व्यक्त करता हूँ :


नशेमन पे मेरे एहसान सारे चमन का है,
कोई तिनका कहीं का है, कोई तिनका कहीं है।

-सुरेश कांत


गलत तौर-तरीकों से बचाएँ खुद को



दफ्तर की गरिमा बनाये रखना हमारा पहला कर्त्तव्य है

किसी दफ्तर में कार्यरत एक अधिकारी ने भंडारगृह के अधीक्षक से मिलकर अभिलेख-पंजिका में दर्ज ‘मोटरकार’ शब्द में से ‘कार’ शब्द को काटकर उसकी जगह ‘साइकिल’ शब्द लिखवा दिया और पुरानी, खस्ताहालत में खड़ी विभागीय मोटरकार को वह अपने घर ले गया और उसके स्थान पर एक पुरानी खस्ताहाल मोटरसाइकिल रखवा दी।
कुछ सालों बाद दूसरा अधिकारी आया। तब तक भंडारगृह के पहले अधीक्षक का तबादला हो चुका था। दूसरे अधिकारी ने भी मौका पाकर रजिस्टर में दर्ज ‘मोटरसाइकिल’ शब्द में से ‘मोटर’ शब्द गायब करके मात्र ‘साइकिल’ रहने दिया और पुरानी मोटरसाइकिल को घर ले जाकर उसके स्थान पर अपनी पुरानी साइकिल दफ्तर में रखवा दी।
इसी प्रकार एक के बाद एक अधिकारी बदलते गए और नये नये रजिस्टर रिकॉर्ड हेतु बनते गए। पुराने रजिस्टरों  की रद्दी या तो जला दी गयी या फिर उन्हें चूहे कुतर गए। रिकॉर्ड-रजिस्टर में ‘साइकिल’ शब्द और विभागीय स्टोर में स्वयं साइकिल भी मात्र ‘किल’ यानी कील में परिवर्तित हो गई। ‘तख्त’ के ‘तख्ता’ के ‘तख्ती’ में बदलने की यह प्रक्रिया किसी न किसी रूप में दफ्तरों में चलती ही रहती है।


उधार की कैंची


कुछ अधिकारी ऐसी हरकतें नहीं करते तो दफ्तर से वस्तुएँ कुछ समय के लिए ‘उधार’ अपने घर ले जाया करते हैं और मौका पाते ही या अपने स्थानांतरण के वक्त रिकॉर्ड-रजिस्टर ही अपने विभाग से गायब करवा देते हैं और फिर उन वस्तुओं की झूठी रसीद दिलवाकर तमाम वस्तुएँ अपने घर पर ही सुरक्षित रखते हैं। विषम परिस्थितियों में जाँच-पड़ताल होने पर वर्तमान अधिकारी अपनी गरिमा बचाए रखने के लिए उक्त पद पर आशीन पहले अधिकारी को पत्र, नोटिस इत्यादि जारी कर उसके द्वारा घर ले जायी वस्तुओं को कुछ समय के लिए वापस मँगवाकर अपनी मुश्किलों से अपनी जान बड़ी मुश्किल से छुड़ा पाता है।

इसी तरह दफ्तरों में अपने सहकर्मियों से रुपये उधार लेने की प्रवृत्ति भी सदियों से चलती आयी है और चलती रहेगी। सहकर्मियों से रुपये उधार माँगकर भूल जाना या फिर यह कहकर कतरा जाना कि हम तो दस-बीस रुपयों का हिसाब ही नहीं रखते, कुछ लोगों की आदत होती है। जी हाँ, कुछ कर्मचारी अपने जरूरी काम बताकर अपने साथियों से रुपये उधार ले लेते हैं, परंतु अपने ही द्वारा बताए गए समय पर लौटा नहीं पाते। वे सोचते हैं कि उधार देनेवाला उन रुपयों को अवश्य भूल गया होगा, अतः वे चुप रहते हैं।

परंतु महँगाई के इस युग में कौन भला अपनी मेहनत की कमाई को भूल सकता है ? अतः एकाएक माँग बैठने पर उधार लेनेवाला व्यक्ति लज्जित तो होता है, परंतु वह अपनी लज्जा पर परदा डालकर उसे छिपाते हुए तुरंत ही दूसरे साथी से कुछ रुपये माँगकर पहलेवाले व्यक्ति के रुपये लौटा देता है और उसे धन्यावाद देने के बजाय नाराजगी-सी प्रकट करता है कि आपने तो अपने रुपये ऐसे माँग लिए, मानो हम लौ    टाते ही नहीं, ये लीजिए अपने रुपये ! उधार देनेवाले व्यक्ति को अपने ही रुपये माँगकर स्वयं ही अव्यावहारिक होने का आरोप भी सहन करना पड़ता है।


इसकी टोपी उसके सिर

कुछ लोग दफ्तर में एक का उधार चुकाने के लिए दूसरे से और दूसरे का उधार चुकाने के लिए तीसरे से उधार माँगने का यह सिलसिला यों ही जारी रखते हैं, जब तक कि उनका विभागीय स्थानांतरण नहीं हो जाता और जाते-जाते वे दो-चार की जेब को चूना अवश्य लगा जाते हैं।
दफ्तर में चाय-नाश्ते का कोई रिकॉर्ड नहीं होता। जिस दफ्तर में विभागीय टी-क्लब नहीं होते, उन दफ्तरों में कर्मचारियों की आम परेशानी है—चाय के पैसे कौन दे ? जी हाँ, यह भी एक गंभीर प्रश्न है। वैसे आम तौर पर चाय की एक प्याली का मूल्य तीन-चार रुपये होता है, परंतु आखिर रोज-रोज की सामूहिक चाय यदि एक ही व्यक्ति विशेष को पिलानी पड़े, तो यह उसे बहुत महँगी पड़ती है।

कुछ लोग अपनी जेब जरा भी हल्की नहीं करना चाहते और सदा उस मेज़ पर अपनी नजर रखते हैं, जिधर चाय वाला जाता दिखायी देता है। चायवाला वर्मा जी की मेज पर चाय रख भी नहीं पाता कि उसके कदमों की आहट सुनते ही शर्मा जी कुछ आवश्यक कार्य लेकर वर्मा के के पास उपस्थित हो जाते हैं; फिर क्या, बस बन गया काम ! वर्मा जी भले चाय के लिए औपचारिकतावश ही पूछें, पर शर्मा जी कहाँ मना करनेवाले। हाँ, हाँ, एक चाय और दे दो और वर्मा जी के नाम ही लिख लेना, वे ही कह डालते हैं। उनकी अपनी बारी आते ही जेब कट जाती है, तरह-तरह की बीमारियां पैदा हो जाती हैं और पर्स भी लोकल ट्रेन या बस में निकाल लिया जाता है।


दफ्तर का माल घर


इसी प्रकार कुछ लोगों की आदत होती है कि वे प्रत्येक माह दफ्तर में मिलनेवाली स्टेशनरी, पेन, पेपरवेट, पेन-स्टैंड आदि पर पैनी दृष्टि रखते हैं। इधर दफ्तर में स्टेशनरी मिली नहीं कि पहुँच गई घर की अलमारियों और बच्चों के स्कूली बस्तों में। बच्चों के लिए आए दिन कापी-कागज का खर्चा क्यों किया जाए ?  जब दफ्तर जिंदाबाद, तो क्या परवाह ! दफ्तर का काम तो पूरे माह अन्य सहकर्मियों की स्टेशनरी मांगकर भी चलाया जा सकता है।
कुछ कर्मचारियों में सहकर्मियों से स्कूटर, मोटरसाइकिल आदि माँगने की प्रवृत्ति भी पाई जाती है। ‘मैडम’, जरा अपनी काइनेटिक होंडा की चाबी तो देना, मार्केट तक जाना है, दर्जी को शर्ट सिलने दी है, जरा ले आऊँ।’ अब मैडम बेचारी क्या कहें ? तुरंत पर्स खोला और चाबी पकड़ा दी।

उधर नौसिखिए बाबू साहब स्कूटर से तो गये, पर जब लौटकर आए तो स्कूटर के साथ-साथ अपने हाथ-पैरों में डेंट भी लगा लाए। शीघ्र ही उन्हें पास के प्राथमिक चिकित्सा केंद्र में भर्ती कराया गया। फिर भी आए दिन किसी न किसी साथी का स्कूटर माँगने से वे बाज नहीं आते। उनकी इस आदत के कारण स्कूटरवाले सहकर्मियों को पेट्रोल का अनावश्यक खर्च वहन करना पड़ता है।


दुष्प्रवृत्तियों पर अंकुश


किंतु लोगों की ये बुरी आदतें आम तौर पर हमारी अपनी कमजोरी की वजह से पनपती हैं; हम सहकर्मियों की ज्यादतियों को बर्दाश्त करते रहते हैं, उनकी बुराइयों को नजरअंदाज कर देते हैं। पर ध्यान रखिए, बुराई को अनदेखा करना उसे शह देने के बराबर है और बुराई को शह देना बुराई करने से कम बुरा नहीं। लिहाजा दुष्प्रवृत्तियों पर तुरंत अंकुश लगाइए, उन्हें हतोत्साहित कीजिए। निम्नलिखित उपाय इसमें मददगार साबित हो सकते हैं :




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